Sunday 11 August 2013

केरल नौका दौड़ के लिए सहायता करेगा पर्यटन मंत्रालय

भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने केरल में अलेप्‍पी और आस-पास के क्षेत्रों के पश्‍चजल में हर वर्ष होने वाली नौका दौड़ के लिए सहायता देने का फैसला किया है। केन्‍द्रीय पर्यटन मंत्री श्री के. चिरंजीवी ने अलपुझा में 61वीं नौका दौड़ के शुभारंभ के अवसर पर घोषणा की कि केरल सरकार 17.50 लाख रुपये का योगदान करेगी जबकि इतनी ही राशि केन्‍द्र सरकार द्वारा भी दी जायेगी।

नौका दौड़ का उद्घाटन केरल के राज्‍यपाल निखिल कुमार ने किया जबकि केरल के लोक निर्माण मंत्री श्री वी. के. इब्राहिम कुंजू ने झंडा फहराया। केन्‍द्रीय श्रम और रोजगार मंत्री श्री कोडिकुन्निल सुरेश और राज्‍य के कई अन्‍य प्रमुख नेता भी इस अवसर पर उपस्थित थे।

श्री चिरंजीवी ने इस अवसर पर एक विशाल अलेप्‍पी बैकवाटर विकास परियोजना की घोषणा की, जिसके लिए पर्यटन मंत्रालय 47;62 करोड़ रुपये का प्रावधान करेगा। श्री चिरंजीवी ने कहा कि केरल के पश्‍च जल और नौका दौड़ के वार्षिक आयोजन में पर्यटन के विकास की व्‍यापक संभावनाएं है। इस लिए पर्यटन मंत्रालय मंत्रालय केरल के पश्‍चजल क्षेत्रों को अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर का पर्यटन स्‍थल बनाने के लिए हर संभव उपाय करेगा।

Wednesday 20 March 2013

पर्यटकों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता : चिरंजीवी


 नई दिल्ली। आगरा में ब्रिटिश पर्यटक के साथ मार-पीट की कोशिश पर दुख व्यक्त करते हुए पर्यटन मंत्री
के. चिरंजीवी ने आज देश में पर्यटकों की रक्षा और सुरक्षा की जरूरत पर बल दिया। पर्यटन मंत्रालस की सलाहकार समिति को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि पर्यटकों की रक्षा और सुरक्षा उनका सूची में पहली प्राथमिकता हैं।
 उन्होंने समिति के सदस्यों को सूचित किया कि उन्होंने घटना में शामिल आगरा के होटल के तीन स्टार रेटिंग को तुरंत निलंबित करने का आदेश दिया है। उन्होंने कहा कि मंत्रालय ने होटल का लाइसेंस रद्द करने के लिए भी कारण-बताओ नोटिस भेजा है। चिरंजीवी ने गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे से बात कर अनुरोध किया कि वे पर्यटकों विशेष तौर पर महिलाओं और बच्चों की रक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उचित प्रणाली बनाएं। उन्होंने समिति को बताया कि उन्होंने सभी मुख्यमंत्रियों से व्यक्तिगत तौर पर संपर्क कर उनके राज्यों में पर्यटकों के लिए उचित सुरक्षा व्यवस्था करने को कहना शुरू किया है। पर्यटन मंत्रालय ने वर्ष 2011 को बेस वर्ष मानते हुए वर्ष 2016 तक विदेशी पर्यटकों की संख्या को दोगुना करने
का लक्ष्य रखा है। चिरंजीवी ने कहा, ''इसका अर्थ है कि हमें विदेशी पर्यटकों की आगमन को प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत बढ़ाना होगा।

Monday 18 March 2013

...एमपी गजब


 एमपी अजब है सबसे गजब है। एक नहीं दो नहीं सैकड़ों यहां शेर है। मांडू का महल है या जहाज है कोई बता दें...एमपी गजब है।
भारत के हृदय स्थली में बसा मध्यप्रदेश हमेशा से ही पर्यटकों अपनी ओर आकर्षित करता आया है। मध्य प्रदेश में पर्यटन के ऐसे बहुत से स्थल है जहां असंख्य सैलानी इन्हें देखने आते हैं। धार्मिक महत्वड्ड के अलावा पुरातात्विक महत्व के इन स्थलों में कान्हा किसली, महेश्वर खजुराहो, भोजपुर, ओंकारेश्वर, सांची, पचमढ़ी, भीमबेटका, चित्रकूट, मैहर, भोपाल, बांधवगढ़, उज्जैन आदि स्थल  पर्यटकों को मध्य प्रदेश में आने को बेकरार करते हैं।

कान्हा  : कान्हा टाइगर रिजर्व राष्ट्रीय उद्यान हैं।  कान्हा में वन्यप्रणियों की 22 प्रजातियों के अलावा 200 पक्षियों की प्रजातियां है। यहां बामनी दादर एक सनसेट प्वाइंट है। यहां से सांभर और हिरण जैसे वन्यप्रणियों को आसानी से देख जा सकता है। लोमड़ी और चिंकारा जैसे वन्यप्राणी कम ही देखने को मिलते हैं। कान्हा जबलपुर, बिलासपुर और बालाघाट से सड़क माग से पहुंचा जा सकता है। नजदीकी विमातल जबलपुर में हैं। इसे देखने के लिए किराये पर जीप, टाइगर ट्रेकिंग के लिए हाथी पर सवार होकर उद्यान को देख सकते हैं।
महेश्वर : पौराणिक ग्रंथों रामायण और महाभारत में महेश्वर को महिष्मती के नाम से संबोधित किया गया है। महेश्वर किले के अंदर रानी अहिल्याबाई की राजगद्दी पर बैठी एक प्रतिमा रखी गई हैं। महेश्वर घाट के आसपास कालेश्वर, राजराजेश्वर, विठ्ठलेश्वर और अहिलेश्वर के सुन्दर मंदिर हैं। इंदौर विमानतल से 91 किलोमीटर पर महेश्वर स्थित हैं।
खजुराहो : मंदिरों की आकर्षण स्थापत्य कला का एक नमूना खजुराहो के मंदिरों में देखा जा सकता हैं। एक हजार वर्ष पूर्व चंदेला राजपूतों के साम्राज्य में बनाए गए 85 मंदिर इनमें से वर्तमान में 22 मंदिर ही बेहतर स्थित में हैं। खजुराहो विश्व पर्यटन स्थल के रूप में अपनी अलग ही पहचान रखता हैं। यहां भोपाल, महोबा, हरबालपुर, सतना, पन्ना से सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। खजुराहो दिल्ली, आगरा से वायुयान द्वार भी पहुंचा जा सकता हैं।
भोजपुर : वास्तुकला का अनुपम संगम
राजधानी भोपाल से 32 किलोमीटर दूर 11 वीं सदी के परमारवंशीय राजा भोज प्रथम द्वारा बेतवा नदी के किनारे बना उच्च कोटि की वास्तुकला का अद्वितीय उदाहरण है भोजपुर। इसे भोजेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस पर्यटन स्थल पर स्थापित मंदिर की विशालता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसका चबूतरा 35 मीटर लंबा, 25 मीटर चैड़ा और 4 मीटर ऊंचा है।  भारी भरकम पत्थरों से बना यह चबूतरा अपने आप में अद्वितीय है। हजारों टनों की वजनदार अनेक पत्थरों को इस चबूतरे पर चढ़ाकर मंदिर के गर्भगृह का निर्माण किया गया है। मान्यता है कि यहां स्थापित शिवलिंग देश का सबसे ऊंचा शिवलिंग है 26 फीट ऊंचाई के गढ़े हुए गौरी पट्ट पर स्थित शिवलिंग की ऊंचाई साढ़े सात फीट तथा उसकी परिधि 18 फीट है। शिव भक्त ने उक्त मंदिर का निर्माण अपने पिता की स्मृति में करवाया था जिसका डिजाइन 'स्वर्गारोहणप्रसादÓ कहलाता है। मंदिर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर जैन मंदिर है। जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं है। 20 फीट ऊंची भगवान महावीर स्थापित है।
पर्यटन में अलग ही पहचान रखता हैं मांडू
कहने वाले इसे खंडहरों के गांव के नाम से भी संबोधित करते हैं परंतु इन खंडहरों के बोलते पत्थर हमें इतिहास के कथा बयां करते है जिसमें रानी रूपमती और बादशाह बाज बहादुर के अमर प्रेम और मांडू के शासकों की विशाल, समृद्ध विरासत व शानो-शौकत के साथ ही हरियाली से आच्छादित पर्यटकों का स्वागत करते जहां के प्राचीन दरवाजे। जी हां हम बात कर रहे हैं मांडू की। विंध्याचल की पहाडिय़ों पर स्थित मांडू जिसे मांडवगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। हिंडोला महल, रानी रूपमती का महल, जहाज महल, जामा मस्जिद, अशरफी महल, पाश्र्वनाथ की श्वेत पद्मासन प्रतिमा देखने योग्य है। मांडू में आप नीलकंठ महल की दीवारों पर अकबरकालीन कला की नक्काशी भी देख सकते हैं। इसके अलावा आप अन्य स्थलों में हाथी महल, दरियाखान की मजार, दाई का महल, दाई की छोटी बहन का महल, मलिक मघत की मस्जिद और जाली महल भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करताी है। जुलाई से मार्च तक यहां सैलानियों का जमघट लगा रहता है। यहीं एक रेवा कुंड का निर्माण बादशाह बाजबहादुर ने अपनी प्रेमिका रानी रूपमती के महल में पानी की प्र्याप्त व्यवस्था के स्त्रोत के रूप में करवाया था। मांडू में देवादिदेव नीलकंठ शिवजी का मंदिर है जिसमें जाने के लिए अंदर सीढ़ी उतरना पड़ता है। इस मंदिर के सौन्दर्य और पेड़ों से घिरे तालाब से एक धार नीचे शिवजी का अभिषेक करती हुई प्रतीत होती है।

भीमबेटका : भोपाल से 46 किमी की दूरी पर स्थित है इस पर्यटन स्थल की विशेषता चट्टानों पर हजारों वर्ष पूर्व बनी चित्रकारी एवं करीब 500 गुफाएं हैं। यहां प्राकृतिक लाल और सफेद रंगों से वन्यप्राणियों के शिकार दृष्यों के अलावा घोड़े, हाथी, बाघ आदि चित्र उकेरे गए हैं। भोपाल से नजदीकी के कारण भीमबेटका में रुकने के साधन नहीं हैं। जहां सड़क मार्ग द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता हैं।
पचमढ़ी : प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण सतपुड़ा की रानी के नाम से पहचाने जाना वाला पर्यटन स्थल हैं पचमढ़ी । जिसकी खोज 1857 में की गई थी। जहा वाटर फाल जिसे जमुना प्रपात कहते हैं पचमढ़ी को जलापूर्ति करता हैं। सुरक्षित पिकनिक स्पाट के रूप में विकसित अप्सरा बिहार का जलप्रपात देखते ही बनता हैं। रजत प्रपात, आयरेन पूल, जटाशंकर मंदिर, सुंदर कुड, पांडव गुफाएं, धूपगढ़ भी पर्यटकों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता हैं। धुआंधार फाल्स में पानी एक बड़े झरने के रूप में गिरता हैं। पचमढ़ी का निकटतम रेल्वे स्टेशन पिपरिया में है। जहां भोपाल और पिपरिया से सड़क मार्ग द्वारा भी जाया जा सकता हैं।
शांति का संदेश देता सांची
बुद्धं शरणं गच्छामि भारत में बौद्धकला की विशिष्टता व भव्यता सदियों से दुनिया को सम्मोहित करती आई है। इनमें गया के महाबोधि मंदिर और सांची के स्तूपों का जहां विश्व विरासत में शुमार है वहीं अन्य अनेक स्थानों पर निर्मित स्तूप, प्रतिमाएं, मंदिर, स्तम्भ, स्मारक, मठ, गुफाएं, शिलाएं उस दौर की उन्नत प्रस्तर कला की अन्य विरासतें अपने में समाये हुए सांची को 1989 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में भी षामिल किया गया हैं। बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र होने के कारण देशी व विदेशी पर्यटक प्रतिदिन हजारों की संख्या में पहुंचते हैं।  यहां एक पुरातत्व संग्रहालय भी दर्शनीय है। शांत वातावरण बुद्ध के शांति के संदेषों का प्रतीक सांची के स्मारक आगन्तुको को चमत्कृत करते हैं। सांची में सुपरफास्ट रेलें नहीं रुकती अतएव भोपाल आकर जाना उपयुक्त रहता है। सांची देष के लगभग सभी नगरों से बस अथवा रेल मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है।
बांधवगढ़ : बांधवगढ़ का इतिहास काफी रोचक है। यह लंबे समय से राजशाहों का पसंदीदा शिकारगाह रहा हैं। बांधवगढ़ का प्रमुख आकर्षण यहां जंगली जीवन, बाधवगढ़ नेशनल पार्क का शेर से लेकर चीतल, नील गाय, चिंकारा, बारहंसिगा, भौंकने वाले हिरण, साभर, जंगली बिल्ली, भैंसे से लेकर 22 प्रजातियों के स्तनपायी जीव और 250 प्रजातियों के पक्षियों का रैन बसैरा हैं। चार सौ अड़तालीस स्कवायर किमी में फेला बाधवगढ़ भारत के नेशनल पार्कों में अपना प्रमुख स्थान रखता हैं। यहा जाते समय भड़कीले कपड़ों से बचते हुए काटन के वस्त्र पहनकर जाना चाहिए एवं गरम कपड़े अपने साथ ले जाना नहीं भूलें वन संपदा को नुकसान न पहुंचाये एवं गाईड द्वारा दी गई सलाहों को न नकारें। शिकार करने का विचार मन में भी न लायें। 2 हजार साल पुराना पहाड़ी पर बना किलाए भी देखने लायक स्थल हैं। बाधवगढ़ रीवा के शहडोल जिले में स्थित हैं। रीवा मध्य प्रदेश का प्रमुख नगर होने के कारण भारत के मध्य में स्थित हैं। यहां आवागमन के सभी पर्याप्त साधन देश भर से उपलब्ध हैं। नजदीकी हवाई अड्डा जबलपुर में हैं। रेल मार्ग से भी जबलपुरए कटनीए सतना से जुड़ा हुआ हैं। खजुराहो से बांधवगढ़ के बीच 237 किमी दूरी हैं। दोनों स्थानों के मध्य क्रोकोडाइल रिजर्व घोषित  नदी हैं।
रघुपति राघव राजा राम धुन में खोया ओरछा
देश के गौरवशाली इतिहास में झांसी के पास स्थित ओरछा का एक अपना महत्व है। इससे जुड़ी तमाम कहानियां और किस्से पिछली कई दशकों से लोगों की जुबान पर हैं।
आज भी भगवान राम राजा हैं ओरछा के विश्व का एक मात्र मंदिर जहा भगवान राम की राजा के रूप मे पूजा की जाती है आज भी मध्य प्रदेश पुलिस उनके सम्मान मे गार्ड ऑफ ऑनर देती है सुबह शाम जब आरती होती है और राज भोग लगाया जाता है राजा राम को, कभी बुन्देल राजाओं की राजधानी होता था ओरछा लेकिन बुंदेला राजा मधुकर साह की धर्मपत्नी को भगवान राम से ऐसा अनुराग हुआ की पहले तो उन्होने अयोध्या मे भव्य कनक भवन मंदिर बनवाकर अयोध्या से उनकी प्रतिमा ले जाकर ओरछा मे भी मंदिर बनवाकर स्थापित करने की ठानी, भगवान राम ने सपने मे दर्शन देकर कहा की मैं ओरछा मे तभी विराजित हूँगा जब ओरछा मे किसी का राज न हो, कहते हैं तभी से बुंदेलों ने राम को राजा की मान्यता देकर उनके भव्य मंदिर का निर्माण किया और भगवान राम को राजा मानकर पूजा करने लगे जिसकी परंपरा आज तक कायम है।
संगमरमरी नगरी जबलपुर
भोपाल से 330 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है प्राचीन शहर जबलपुर। रामायण एवं महाभारत की कथाएं इस शहर से जुड़़ी हुई हैं। यह शहर पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। जबलपुर का भौगोलिक क्षेत्र पथरीली, बंजर जमीन और पहाड़ों से आच्छादित है। जबलपुर में आपको बेशुमार संगमरमर की चट्टानें देखने को मिलेंगी। इनके बीच से बहती हुई नर्मदा चांदी की लकीर जैसी दिखाई देती है। जबलपुर का खास आकर्षण यहां का भेड़ाघाट और धुआंधार जलप्रपात है। यहां नर्मदा संगमरमरी चट्टानों के बीच से बहुत संकरे रास्ते से बहती है। इसके बाद एक बहुत गहरे स्थान में पानी गिरने से पानी की जगह धुआं ही धुआं दिखाई देता है। गर्मियों में इस प्रपात के पास खड़े होने राहत मिलती है। इसके अलावा संगराम सागर और बजाना मठ राजा संगराम शाह ने इन इमारतों का निर्माण किया था। कहते हैं कि यहां तिलवाराघाट पर महात्मा गांधी की अस्थियां विसर्जित की गई थीं। 1939 में कांग्रेस का सम्मेलन इस स्थान पर आयोजित किया गया था। माला देवी मंदिर का बारहवीं सदी में निर्माण किया गया था। इस मंदिर में माला देवी या लक्ष्मी की मूर्ति श्रद्धालुओं ने स्थापित की है। गोंड राजा मदन शाह ने इस महल को पहाड़़ों के ऊपर निर्मित किया था। आसमान की ऊंचाइयों से स्पर्श करते इस किले से इस सुंदर नगरी को निहारा जा सकता है।
महाकाल की नगरी उज्जैन

क्षिप्रा नदी के किनारे बसे उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। धार्मिक महत्व के अलावा इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। विक्रमादित्य और अशोक जैसे राजाओं ने यहां राज किया है। कालिदास ने अपनी हृदयस्पर्शी रचनाएं यहीं रची हैं। इन सबकी निशानियां आज भी यहां देखी जा सकती हैं। महाकालेश्वर मंदिर की महत्ता का वर्णन अनेक पुराणों में भी मिलता है। यह मंदिर उज्जैन के लोंगों के जीवन का अहम  हिस्सा है। मंदिर में स्थापित शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि यह स्वयंभू है। अन्य मंदिरों में मंत्रों द्वारा इसे शक्ति प्रदान की जाती है लेकिन यहां का लिंग अपनी शक्ति स्वयं प्राप्त करता है। महाकाल मंदिर के ऊपर ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति रखी है। भगवान गणेश, कार्तिकेय और देवी पार्वती की प्रतिमाएं पश्चिम, पूर्व और उत्तर में स्थापित हैं। क्षिप्रा नदी के किनारे भर्तृहरी गुफाओं और गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित पीर मत्स्येंद्रनाथ बहुत की आकर्षक स्थल है। यह जगह नाथों के महान नेता मत्स्येंद्रनाथ को समर्पित है। मुस्लिम और नाथ अनुयायी अपने संतों को पीर कहा करते हैं। इसलिए दोनों ही मतावलंबी इस स्थान को पवित्र मानते हैं। यहां आसपास की बिखरी कई चीजें 6ठीं और 7वीं शताब्दी के आसपास की हैं।



Saturday 2 February 2013

प्राकृतिक सुंदरता को अपने में समेटे हैं चन्दौली

प्राकृतिक सुंदरता को अपने में समेटे चन्दौली एक खूबसूरत पर्यटक स्थल है। वाराणसी से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस जिले का प्राशासनिक मुख्यालय चन्दौली है। चन्दौली जिले की स्थापना चन्द्र शाह ने की थी। रामनगर, चन्द्रप्रभा वन्य-जीव अभ्यारण, चन्दौली और धानपुर यहां के प्रमुख स्थलों में से है। यह जिला बिहार राज्य के पूर्व, गाजीपुर जिले के उत्तर-पूर्व, सोनभद्र जिले के दक्षिण, बिहार के दक्षिण-पूर्व और मिर्जापुर के दक्षिण-पश्चिम से घिरा हुआ है। चन्दौली स्थित चहनिया खण्ड ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्व रखता है। माना जाता है कि भगवान राम की पत्नी सीता इस जगह पर कुछ समय के लिए रही थी। वर्तमान समय में इस जगह को धनधौर के नाम से जाना जाता है। अपने प्रवास के दौरान सीता जिस स्थान पर रही थी तपस्वी वाल्मीकि ने सीता के लिए वहां अपना आश्रम बनाया था। मुख्य आकर्षण रामनगर गंगा नदी के तट पर स्थित रामनगर, वाराणसी से लगभग सात और मुगलसराय से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रामनगर वाराणसी के महाराजा बलवन्त सिंह का स्थानीय आवास था। यहां स्थित रामनगर किले का निर्माण 1750 ई. में किया गया था। रामनगर किले में एक खूबसूरत मंदिर स्थित है। यह मंदिर वेद व्यास को समर्पित है। इसके अतिरिक्त किले में एक खूबसूरत कुण्ड भी है। वर्तमान समय में इस जगह को संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। इस संग्रहालय में सजी हुई पालकी, महाराजा के वस्त्र आदि प्रदर्शित किए गए है। चन्द्रप्रभा वन्यजीव अभ्यारण चन्दौली जिला स्थित चन्द्रप्रभा वन्य जीव अभ्यारण वाराणसी के दक्षिण.पूर्व से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस अभ्यारण की स्थापना 1957 ई. के दौरान हुई थी। नौगढ़ और विजयगढ़ पर्वत पर स्थित यह अभ्यारण लगभग 78 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। चन्द्रप्रभा वन्यजीव अभ्यारण में विभिन्न पशु-पक्षी जैसे साम्बर, भालू, नीलगाय, चीता आदि देखे जा सकते हैं। इस अभ्यारण में घूमने के लिए सबसे उचित समय नवम्बर के मध्य से जून के मध्य तक का है। चन्दौली चन्दौली वाराणसी से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है। चन्दौली की स्थापना नरोतम राय परिवार के बरहुलिया राजपुर चन्द्र साह ने करवाई थी। उन्हीं के नाम पर इस जगह का नाम रखा गया था। इस जगह पर उन्होंने एक किले का निर्माण भी करवाया था। धानपुर चन्दौली जिला स्थित धानपुर यहां के महत्वपूर्ण शहरों में से एक है। यह जगह चन्दौली के उत्तर और वाराणसी से लगभग 42 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां स्थित धानपुर शहीद स्मारक इस जिले के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। कैसे जाएं वायु मार्ग सबसे निकटतम हवाई अड्डा वाराणसी स्थित बाबतपुर है। यह जगह मुगलसराय से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। दिल्ली, आगरा, खुजराहो, कलकत्ता, मुम्बई, लखनऊ और भुवनेशवर से वायुमार्ग द्वारा यहां पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन मुगलसराय और वाराणसी है। चन्दौली से मुगलसराय आठ किलोमीटर और वाराणसी 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सड़क मार्ग
चन्दौली सड़क मार्ग द्वारा भारत के कई प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।

मनमोहक तटों से गुंटूर केा नवाजा

प्रकृति ने अपनी खूबसूरती ऊचें पहाड़ों, हरीभरी घाटियों, कलकल बहती नदियों और मनमोहक तटों से गुंटूर केा नवाजा है। यहां की छटा देखते ही बनती है। गुंटूर अपने धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों तथा चटपटे अचार के लिए दुनिया को अपने ओर आकर्षित करता है। गुंटूर आंध्र प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। आंध्र प्रदेश के उत्तर पूर्वी भाग में कृष्णा नदी डेल्टा में स्थित है गुंटूर। विजयवाड़ा-चेन्नई ट्रंक रोड पर स्थित गुंटूर की स्थापना फ्रांसिसी शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य में की थी। करीब 10 शताब्दियों तक उन्होंने गुंटूर में राज किया। बाद में 1788 में इसे ब्रिटिश साग्राज्य में मिला दिया गया। गुंटूर बौद्ध धर्म का भी प्रमुख केंद्र रहा है। मुख्य आकर्षण भवनारायण स्वामी मंदिर
गुंटूर से 49 किमी. दूर बपाट्ला का भवनारायण स्वामी मंदिर भगवान भवनारायण को समर्पित है। समय बीतने के साथ अब इन्हें बापट्ला के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर गुंटूर जिले का सबसे प्राचीन और सबसे प्रमुख मंदिर है। इतिहास और शिल्प की दृष्टि से मंदिर का बहुत महत्व है। अमरावती अमरावती गुंटूर से 35 किमी. दूर उत्तर-पश्चिम में कृष्णा नदी के किनारे स्थित है। यहां पूरे वर्ष श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है इसलिए यहां पर्यटकों के लिए सुविधाओं की अच्छी व्यवस्था है। यहां भगवान शिव के प्रमुख मंदिरों में से एक अमरेश्वर है जहां शिवरात्रि के अवसर पर भक्तों की भारी भीड़ होती है। अमरावती में विश्वप्रसिद्ध बौद्ध स्तूप भी है जहां भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्रों को देखा जा सकता है। कोटप्पा कोंडाकोटप्पा कोंडा नरसराओपेट से 13 किमी. दक्षिण पश्चिम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से ऋत्रिकोटेश्वर स्वामी की पूजा की आती है जिनका मंदिर पहाड़ की चोटी पर स्थित है। अब राज्य सरकार इस स्थान को पर्यटन और धार्मिक केंद्र के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रही है। इसके लिए यहां पर्यटन सुविधाएं बढ़ाए जाने की व्यवस्था की जा रही है। मंगलागिरी
मंगलागिरी विजयवाड़ा-चेन्नई ट्रंक रोड पर स्थित है। प्रागैतिहासिक काल से ही यह स्थान बहुत प्रसिद्ध रहा है। मंगलागिरी पर्वत पर भगवान लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी का मंदिर है इसलिए इसे बहुत ही पवित्र पर्वत माना जाता है। माना जाता है कि जो जल भक्त प्रभु को चढ़ाते हैं उनमें से आधा भगवान पी लेते हैं और बाकी आधा भक्त प्रसाद के रूप में ले जाते हैं। लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी को पनकला नरसिम्हा स्वामी या पनकला स्वामी भी कहा जाता है। नल्लापडु गुंटूर से 5 किमी. दूर नल्लापडु या नसिंहपुरम का नाम यहां पहाड़ी पर स्थित नरसिंहस्वामी मंदिर के कारण पड़ा है। इस मंदिर के अलावा भी यहां कई प्राचीन मंदिर भी हैं। यहां के अगस्लेश्वरस्वामी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यह कई शताब्दी पुराना है। इस मंदिर में सुसज्जित ध्वजस्तंभम, पांच नागों की उकेरी गई प्रतिमाएं, शिव जी और ब्रह्मरंब, उनकी पत्नी की प्रतिमाएं तथा शंकराचार्य मंदिर दर्शनीय हैं। पोंडुगला गुटूर से 11 किमी. दूर पोंडुगला में बहुत सारे मंदिर हैं। इनमें सबसे प्रमुख मंदिर है गंटाला रामलिंगेश्वरा स्वामी मंदिर। इस मंदिर के स्तंभों में पाली में लिखे शिलालेखों को देखा जा सकता है। पास ही दंडीवगु नदी के किनारे स्थित अयेगरीपालम गांव में भी एक मंदिर है जहां संस्कृत में लिखे दो शिलालेख मिले हैं। इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। आसपास दर्शनीय स्थल नागार्जुनसागर बांध नागार्जुनसागर बांध निरूसंदेह भारत की शान है। यह पत्थर से बना दुनिया का सबसे ऊंचा बांध है। इस बांध का पानी नालगोंडा, प्रकासम, खम्मम और गुंटूर जैसे आंध्र प्रदेश के अनेक जिलों में सिंचाई के काम आता है। नागार्जुनसागर श्रीसैलम अभ्यारण्य 3568 गर्व किमी. क्षेत्र में फैला यह अभ्यारण्य भारत में सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व माना जाता है। इसके अलावा यहां फूलों व वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां भी पाई जाती हैं। अभ्यराण्य के साथ ही नागार्जुनसागर बांध है। यहां की गहरी घाटियों की सुंदरता देखते ही बनती है। आवागमन वायु मार्ग नजदीकी हवाई अड्डा गन्नवरम है। रेल मार्ग नजदीकी रेलवे स्टेशन गुंटूर और विजयवाड़ा हैं जो सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है। सड़क मार्ग बस सेवाएं गुंटूर को जिले के अंदर व बाहर के प्रमुख स्थानों से जोड़ती हैं जिनमें राज्य मुख्यालय भी शामिल हैं।

Tuesday 22 January 2013

टेंपल सिटी कांचीपुरम

कहीं कला के लिए अपार श्रद्धा है तो कहीं देव भक्ति में रमे लोगों की संख्या ज्यादा है। कुछ स्थानों की सुन्दरता देखकर स्वर्ग की उपमा दे दी है, तो किसी स्थान को देवभूमि करार दे दिया गया है। भारत देश विविधताओं से भरा हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों को अपने समाहित किए इस देश के राज्यों को कुछ और करीब से जानने के लिए हमारे साथ चलिए। पलार नदी के कि नारे बसा क ांचीपुरम भी देश का एक ऐसा ही अद़्भुत शहर है। क ांचीपुरम को पवित्र नगरों में गिना जाता है। इस शहर में तक रीबन 126 मंदिर स्थित हैं, जिस वजह से इसे 'टेप्पल सिटीÓ के नाम से भी जाना जाता है। कांचीपुरम के मंदिरों में आपको द्रविड़ शैली क ा आर्कि टेक्चर देखने क ो मिलेगा। यहां क ा सबसे बड़ा मंदिर भगवान शिव के लिए बना एक ंबरनाथ मंदिर है। इसी मंदिर के प्रांगण में स्थित एक 3,500 साल पुराना आम का पेड़ भी है, जिसे लोग बहुत पवित्र मानते हैं। देवी पार्वती के रुप को समर्पित क ामाक्षी अत्मा मंदिर अपने खूबसूरत आर्कि टेक्चर के लिए जाना जाता है। 11वीं शताब्दी में बने वर्धराजा पेरु मल मंदिर क ा भी पर्यटक ों में बहुत क्र ेज रहता है। इतिहास पर डाले नजर
कांचीपुरम ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में महत्त्वपूर्ण नगर था। सम्भवत: यह दक्षिण भारत का ही नहीं बल्कि तमिलनाडु का सबसे बड़ा केन्द्र था। बुद्धघोष के समकालीन प्रसिद्ध भाष्यकार धर्मपाल का जन्म स्थान यहीं था, इससे अनुमान किया जाता है कि यह बौद्धधर्मीय जीवन का केन्द्र था। यहाँ के सुन्दरतम मन्दिरों की परम्परा इस बात को प्रमाणित करती है कि यह स्थान दक्षिण भारत के धार्मिक क्रियाकलाप का अनेकों शताब्दियों तक केन्द्र रहा है। कांचीपुरम 7वीं शताब्दी से लेकर 9वीं शताब्दी में पल्लव साम्राज्य का ऐतिहासिक शहर व राजधानी हुआ करती थी। छठी शताब्दी में पल्लवों के संरक्षण से प्रारम्भ कर पन्द्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी तक विजयनगर के राजाओं के संरक्षणकाल के मध्य 1000 वर्ष के द्रविड़ मन्दिर शिल्प के विकास को यहाँ एक ही स्थान पर देखा जा सकता है। 'कैलाशनाथार मंदिरÓ इस कला के चरमोत्कर्ष का उदाहरण है। एक दशाब्दी पीछे का बना 'बैकुण्ठ पेरुमलÓ इस कला के सौष्ठव का सूचक है। उपयुक्त दोनों मन्दिर पल्लव नृपों के शिल्पकला प्रेम के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। क्या देखें कैलाशनाथ मंदिर कांचीपुरम शहर के पश्चिम दिशा में स्थित यह मंदिर कांचीपुरम का सबसे प्राचीन और दक्षिण भारत के सबसे शानदार मंदिरों में एक है। इस मंदिर को आठवीं शताब्दी में पल्लव वंश के राजा राजसिम्हा ने अपनी पत्नी की प्रार्थना पर बनवाया था। मंदिर के अग्रभाग का निर्माण राजा के पुत्र महेन्द्र वर्मन तृतीय के करवाया था। मंदिर में देवी पार्वती और शिव की नृत्य प्रतियोगिता को दर्शाया गया है। बैकुंठ पेरूमल मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में पल्लव राजा नंदीवर्मन पल्लवमल्ला ने करवाया था। मंदिर में भगवान विष्णु को बैठे, खड़े और आराम करती मुद्रा में देखा जा सकता है। मंदिर की दीवारों में पल्लव और चालुक्यों के युद्धों के दृश्य बने हुए हैं। मंदिर में 1000 स्तम्भों वाला एक विशाल हॉल भी है जो पर्यटकों को बहुत आकषित करता है। प्रत्येक स्तम्भ में नक्काशी से तस्वीर उकेरी गई हैं जो उत्तम कारीगर की प्रतीक हैं। कामाक्षी अम्मन मंदिर कामाक्षी अमां मंदिर यह मंदिर देवी शक्ति के तीन सबसे पवित्र स्थानों में एक है। मदुरै और वाराणसी अन्य दो पवित्र स्थल हैं। 1.6 एकड़ में फैला यह मंदिर नगर के बीचों-बीच स्थित है। मंदिर को पल्लवों ने बनवाया था। बाद में इसका पुनरोद्धार 14 वीं और 17वीं शताब्दी में करवाया गया। वरदराज मंदिर यह मंदिर उस काल के कारीगरों की कला का जीता जागता उदाहरण है। वरदराज मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उन्हें देवराजस्वामी के रूप में पूजा जाता है। मंदिर में 100 स्तम्भों वाला एक हाल है जिसे विजयनगर के राजाओं ने बनवाया था। एकमबारानाथर मंदिर यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर को पल्लवों ने बनवाया था। बाद में इसका पुर्ननिर्माण चोल और विजयनगर के राजाओं ने करवाया। 11 खंड़ों का यह मंदिर दक्षिण भारत के सबसे ऊंचे मंदिरों में एक है। मंदिर में बहुत आकर्षक मूर्तियां देखी जा सकती हैं। साथ ही यहां का 1000 पिलर का मंडपम भी खासा लोकप्रिय है। वेदानथंगल और किरीकिरी पक्षी अभ्यारण्य यह दोनों पक्षी अभ्यारण्य कांचीपुरम के अंदरूनी भाग में स्थित हैं। वेदानथंगल 30 हेक्टेयर और किरीकिरी 61 हेक्टेयर में फैला हुआ है। यह अभ्यारण्य बबूल और बैरिंगटोनिया पेड़ो से भर हुए हैं। इन अभ्यराण्य में पाकिस्तान, श्रीलंका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और साइबेरियन पक्षियों को देखा जा सकता है। पिन्टेल्स, स्टिल्ट्स, गारगानी टील्स और सैंडपाइपर जसी पक्षियों की प्रजातियां यह नियमित रूप से देखी जा सकती हैं। इन दोनों अभ्यराण्य में तकरीबन 115 पक्षियों की प्रजातियां पाई जाती हैं। साडिय़ों की करे खरीददारी कांचीपुरम सिल्क फैब्रिक और हाथ से बुनी रेशमी साडिय़ों के लिए भी यह देश-दुनिया में मशहूर है। बुनाई करने वाले उच्च क्वालिटी की सिल्क और शुद्ध सोने के तार इन साडिय़ों पर इस्तेमाल कर एक से बढ़कर एक ख़ूबसूरत साडिय़ों का निर्माण करते हैं। इसलिए इसे सिल्क सिटी भी कहते हैं। कुछ खऱीदने की इच्छा हो तो इन सिल्क की साडिय़ों की शॉपिंग ज़रूर करें क्योंकि दूसरे शहरों के मुकाबले ये यहाँ उचित व कम दामों में मिल जाती हैं। ९०० वर्ष पहले का अस्पताल तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले में तिरुमुकुदल गाँव के एक प्राचीन मंदिर में मिले एक शिलालेख से पता चलता है की यहाँ करीब 900 वर्ष पहले 15 इमक वाला एक अस्पताल और वैदिक स्कूल था वेंकटेश पेरूमल मंदिर में यह शिलालेख पुरातत्व विद केवी सुब्रमण्यम ने खोजा है शिला लेख में असुरा सलाई का उल्लेख है जो एक अस्पताल था भारतीय पुरातव सर्वे के अनुसार मंदिर से लगे इस अस्पताल में अंपका स्कूल के छात्रो और मंदिर के कर्मचारियों का उपचार किया जाता था इस मंदिर को संरक्षित इमारत घोषित किया जा चुका है और इसका प्रबंधन ऐ यस आई के जिम्मे है शिला लेख के अनुसार वीरचोला नामक अस्पताल में 15 बिस्तर थे इसमे काम करने वाले करने वाले कर्मचारियों की संख्या पर्याप्त थी जिसमे कोदंद रामन अस्वथामन भट्टन नामक एक सर्जन कई नर्से नौकर और एक नाइ शामिल थे अस्पताल के कर्मचारियों को वेतन दिया जाता था अस्पताल में राखी गयी करीब 20 दवाईयों का ब्योरा भी शिलालेख में है इन दवायों से बबासीर पीलिया बुखार पेसाब की नली की बीमारियाँ टीबी रक्तस्राव आदि का इलाज किया जाता था। कैसे पहुंचे वायु मार्ग : मंदिरों का शहर कांचीपुरम जाने लिए वायुमार्ग अच्छा है। यहां पहुंचने के लिए निकटतम एयरपोर्ट चैन्नई है जो लगभग 75 किमी. दूर है। चेन्नई से कांचीपुरम लगभग 2 घंटे में पहुंचा जा सकता है। आप एयरपोर्ट से बस से जा सकते हैं। इसके अलावा आप यहां से टैक्सी लेकर जा सकते हैं। रेल मार्ग देश के प्रत्येक कोने से रेलमार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। कांचीपुरम का रेलवे स्टेशन चैन्नई, चेन्गलपट्टू, तिरूपति और बैंगलोर से जुड़ा है। स्टेशन से आप अपनी यात्रा प्रारंभ कर सकते हैं। सड़क मार्ग कांचीपुरम तमिलनाडु के लगभग सभी शहरों से सड़क मार्ग से जुड़ा है। विभिन्न शहरों से कांचीपुरम के लिए नियमित अंतराल में बसें चलती हैं।

गया की संस्कृति का पर्याय हैं बुद्ध, तिलकुट और पिंड दान

बिहार का दूसरा सबसे बड़ा शहर और दुनिया भर के बौद्ध एवं हिन्दू धर्मावलंबियों द्वारा पवित्र माने जाने वाले शहर गया को बुद्ध, तिलकुट और 'पिंड दान के धार्मिक कर्मकांड के लिए जाना जाता है। पटना से दक्षिण में 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गया शहर का बोद्धों और हिन्दुओं की धार्मिक गतिविधियों के लिहाज से ऐतिहासिक महत्व है। दोनों धर्म के लोग अपने धार्मिक कर्मकांड करने यहां हर साल आते हैं। फाल्गु या निरंजना नदी के तट पर स्थित इस शहर को हिन्दुओं में पूर्वजों को मोक्ष दिलाने के लिए पिंड दान के लिए
सबसे महत्वपूर्ण जगह माना जाता है। पिंड दान हर साल हिन्दू पंचांग के अश्विन महीने :सितंबर-अक्तूबर: में किया जाता है। जिस अवधि में पिंड दान किया जाता है उसे 'पितृ पक्षÓ के रूप में जाना जाता है और दशहरा शुरू होने के दस दिन पहले यह समाप्त हो जाता है। इस अवधि को शादी, व्यापार और दूसरी गतिविधियों के लिए अशुभ माना जाता है। गया जिले से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया को बौद्ध श्रद्धालु सबसे पवित्र जगहों में से एक मानते हैं। यहां महाबोधि मंदिर और महोबोधि वृक्ष है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान मिला था। 2002 में महाबोधि मंदिर को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल घोषित किया था। इतिहासकारों के अनुसार ज्ञान मिलने के 250 साल बाद अशोक यहां आए थे जिस दौरान मूल महाबोधि मंदिर का निर्माण किया गया था। बाद में इसका जीर्णोद्धार किया गया। महाबोधि मंदिर के अलावा यहां कई छोटे-बड़े मदिर हैं। इनमें थाई मंदिर, कर्म मंदिर, दाईजोक्यो बुद्ध मंदिर, 80-फुट मंदिर, निप्पन मंदिर आदि शामिल हैं। वहीं शहर की यात्रा के अनुभव को यहां का प्रसिद्ध 'तिलकुटÓ मीठा बनाता है। यह तिल औैर चीनी के मिश्रण से बनता है। एक स्थानीय विक्रेता विनोद केशरी ने कहा, ''गया और तिलकुट दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। गया का तिलकुट देश में सबसे अच्छा और बेजोड़ होता है।ÓÓ उसने कहा, ''छठ पूजा (आमतौर पर नवंबर) के समय तिलकुट का मौसम शुरू हो जाता है और यह मकर संक्रांति :मध्य जनवरी: तक मिलता है।ÓÓ विष्णुपद मंदिर फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है। यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं। इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं। इस मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था। पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है। जामा मस्जिद जामा मस्जिद बिहार की सबसे बड़ी मस्जिद है। यह तकरीबन 200 साल पुरानी है। इसमे हजारों लोग साथ में नमाज अदा कर सकते है। बिथो शरीफ मुख्य नगर से 10 कि मी दूर गया पटना मार्ग पर स्थित एक पवित्र धर्मिक स्थल है। यहा नवी सदी हिजरी मे चिशती अशरफि सिलसिले के प्रख्यात सूफी सत हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ ने खानकाह अशरफिया की स्थापना की थी। आज भी पूरे भारत से श्रदालु यहा दर्शन के लिये आते है। हर साल इस्लामी मास शाबान की 10 तारीख को हजरत मखदूम सयद दर्वेश अशरफ का उर्स मनाया जाता है। बानाबर (बराबर)पहाड़ गया से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर बेलागंज से 10 किलोमीटर पूरब मे स्थित है। इसके ऊपर भगवान शिव का मन्दिर है, जहाँ हर वर्ष हजारों श्रद्धालु सावन के महीने मे जल चढ़ते है। कहते हैं इस मन्दिर को बानासुर ने बनवाया था। पुन: सम्राट अशोक ने मरम्मत करवाया। इसके नीचे सतघरवा की गुफा है, जो प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना है। इसके अतिरिक्त एक मार्ग गया से लगभग 30 किमी उत्तर मखदुमपुर से भी है। इस पर जाने हेतु पातालगंगा, हथियाबोर और बावनसीढ़ी तीन मार्ग है, जो क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से है, पूरब में फलगू नदी है। कोटेस्वरनाथ यह अति प्राचीन शिव मन्दिर मोरहर नदी के किनारे मेन गांव में स्थित है। यहां हर वर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है। यहाँ पहुँचने हेतु गया से लगभग 30 किमी उत्तर पटना-गया मार्ग पर स्थित मखदुमपुर से पाईबिगहा समसारा होते हुए जाना होता है। गया से पाईबिगहा के लिये सीधी बस सेवा उपलब्ध है। पाईबिगहा से इसकी दूरी लगभग 2 किमी है। सूर्य मंदिर सूर्य मंदिर प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर के 20 किलोमीटर उत्तर और रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। भगवान सूर्य को समर्पित यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है। दिपावली के छह दिन बाद बिहार के लोकप्रिय पर्व छठ के अवसर पर यहां तीर्थयात्रियों की जबर्दस्त भीड़ होती है। इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है। ब्रह्मयोनि पहाड़ी इस पहाड़ी की चोटी पर चढऩे के लिए 440 सीढिय़ों को पार करना होता है। इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है। यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है। इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है। दंतकथाओं पर विश्वास किया जाए तो पहले फल्गु नदी इस पहाड़ी के ऊपर से बहती थी। लेकिन देवी सीता के शाप के प्रभाव से अब यह नदी पहाड़ी के नीचे से बहती है। यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है। यह मारनपुर के निकट है बराबर गुफा यह गुफा गया से 20 किलोमीटर उत्तर में स्थित है। इस गुफा तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर पैदल और 10 किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है। यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है। यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है। इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है। इस गुफा उल्लेख ईएम फोस्टर की किताब, पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है। इन गुफाओं में से 7 गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है। महाबोधि मंदिर यह मंदिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान हे। इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूत्र्ति स्थापित है। यह मूत्र्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूत्र्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं। इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लेखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है। कहा जाता बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। मंदिर समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है। मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूत्र्ति है। यह मूत्र्ति विजरासन मुद्रा में है। इस मूत्र्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूत्र्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूत्र्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ा अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूत्र्ति बनी हुई है। इस मूत्र्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है। मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है। मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्?ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है। महाबोधि मंदिर के उत्तर पश्चिम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है। माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूत्र्ति स्थापित है। इस मूत्र्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूत्र्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की। इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रुप में बुद्धमं शरणम गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हू) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई। तिब्बतियन मठ महाबोधि मंदिर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित जोकि बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है 1934 ई. में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि मंदिर परिसर से 1किलोमीटर पश्चिम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिणपश्चिम में स्थित मंदिर का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस मंदिर का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी मंदिरों के आधार पर किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस मंदिर में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी मंदिर के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना मंदिर वियतनामी मंदिर है। यह मंदिर महाबोधि मंदिर के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस मंदिर में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूत्र्ति स्थापित है। इन मठों और मंदिरों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां देखने लायक है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूत्र्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूत्र्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं। आसपास के दर्शनीय स्थल बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 25 रु है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 12.50 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है। शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे। राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। इन सबके अलावा राजगीर मे जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। नालन्दा यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है। नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए। नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रुप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।